ऐतिहासिक >> राऊ स्वामी राऊ स्वामीनागनाथ इनामदार
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श्रीमन्त बाजीराव पेशवा और मदन कुँवरि मस्तानी की प्रणय-गाथा पर आधारित ऐतिहासिक उपन्यास
Rao Swami
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
यह मराठी के लेखक श्री नागनाथ इनामदार के उपन्यास ‘राऊ’ का अनुवाद है। अनुवाद के लिए अनुवादक का वक्तव्य आवश्यक नहीं होता है, परन्तु यह एक ऐसी ऐतिहासिक घटना है, जिसके लिए अनुवादक के नाते मैं अपना वक्तव्य आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य समझता हूँ और इसे अपना कर्तव्य मानता हूँ।
सौन्दर्य-सुरसरिता मदन कुँवरि मस्तानी और पुरुषार्थ-पयोनिधि श्रीमन्त बाजीराव पेशवा की प्रेम-कहानी है यह। हिन्दी में मदन कुँवरि और बाजीराव पेशवा के सम्बन्ध में न के बराबर साहित्य लिखा गया है। मराठी में जिन्होंने भी इस विषय पर लिखा है उन सभी ने मदन कुँवरि मस्तानी को मुसलमान और बाजीराव की रखैल माना है। परन्तु यह सत्य नहीं है। श्री सुधीन्द्र वर्मा ने अपनी पुस्तक (खाँडे की धार) में मदन कुँवरि का परिचय दिया है। ओरछा-नरेश के एक सैनिक हम्मीर सिंह की पुत्री थी मदन कुँवरि। हम्मीर सिंह बुन्देला ठाकुर था। उसने खँगार ठाकुर-कन्या से विवाह कर लिया था। इसी बात पर बुन्देले ठाकुरों ने हम्मीर सिंह को जाति से बहिष्कृत कर दिया था।
ओरछा में बेतवा नदी के तट पर चतुर्भुज-मन्दिर के निकट झोपड़ी में हम्मीर सिंह रहता था। उसकी झोंपड़ी के पास ही एक झोंपड़ी में वृद्ध रहमान रहता था। वह गायक था। वह दरबार में और सभाओं में गाता था। वह अकेला ही था। उसने शादी नहीं की थी। हम्मीर सिंह और रहमान दोनों घनिष्ठ मित्र थे। मदन कुँवरि पाँच वर्ष की थी कि उसकी माता का देहान्त हो गया। मदन कुँवरि मस्त मिजा़ज की लड़की थी। वह चंचल, अल्हड़, परम रूपवती और कोकिलकंठी थी। हम्मीर सिंह को गीत-संगीत सुनने का बड़ा शौक था। दोनों मित्र सन्ध्या समय मिलकर बैठते और संगीत-विभोर होकर समय व्यतीत करते। मदन कुँवरि भी गाने की शौकीन हो गई थी।
क्षत्रिय-कुलावतंस शिवाजी महाराज ने संस्कृत के ग्रन्थों में वर्णित अष्ट प्रधानों की योजना की थी। वे इस प्रकार थे—1.पन्त प्रधान, 2.पन्त अमात्य, 3.पन्त सचिव, 4.मन्त्री,. 5.सेनापति, 6.सुमन्त, 7.न्यायाधीश और 8.पंडित राव। पन्त प्रधान को ही उर्दू में पेशवा कहते हैं। पन्त प्रधान मुख्य प्रधान होते थे तथा छत्रपति की अनुपस्थिति में वे मुख्याधिकारी होते थे। न्यायाधीश और पंडित राव युद्ध निपुण नहीं होते थे—शेष सबको अवसर आने पर लड़ाई के लिए तैयार रहना पड़ता था। संवत् 1746 वि. में छत्रपति शिवाजी के बड़े पुत्र सम्भाजी के वध के बाद औरंगजेब ने सम्भाजी की पत्नी येसूबाई तथा पुत्र शिवा को कैद कर लिया था। औरंगजेब को शिवाजी के नाम से चिढ़ थी। अतः उसने सम्भाजी के पुत्र शिवा का नाम शाहू रख दिया था। बाद में आगे चलकर शिवा को इतिहास में शाहू के नाम से ही जाना गया।
औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसका लड़का मुअज्जम बहादुरशाह नाम धारण कर गद्दी पर बैठा। उसने सम्भाजी की पत्नी को तथा पुत्र शाहू को यह विचार कर कैद से छोड़ दिया कि इससे मराठों में राज्य के लिए संघर्ष होगा। सम्भाजी की मृत्यु के पश्चात् मराठों ने सम्भाजी के छोटे भाई राजाराम को गद्दी पर बैठाया था। संवत् 1757 वि. में राजाराम की मृत्यु हो गई। राजाराम के बाद राज्य का वास्तविक अधिकारी सम्भाजी का लड़का शाहू गद्दी पर बैठना चाहिए था, परंतु वह औरंगजेब की कैद में था। इधर राजाराम की स्त्री ताराबाई अपने दस वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय को गद्दी पर बैठाना चाहती थी। अतः वही हुआ। इधर जब शाहू कैद से मुक्त हुआ तब वह नर्मदा नदी को पार कर दक्षिण में सतारा की ओर चला। तब अनेक मराठा सरदार ताराबाई का पक्ष छोड़कर शाहू के साथ आ गये। शाहू की सब प्रकार से सहायता करके उसको विजय दिलानेवाला व्यक्ति बालाजी विश्वनाथ भट था। शाहू ने बालाजी का कर्तृव्य देखकर उसे संवत् 1770 वि. में पेशवा पद प्रदान किया था। संवत् 1777 वि. में बालाजी की मृत्यु हो गई। तब शाहू ने बालाजी के बड़े लड़के बाजीराव को पेशवा पद दिया। बाजीराव के छोटे भाई का नाम चिमाजी आपा था। बाजीराव पेशवा का कर्तृव्य इतिहास-प्रसिद्ध है। बाजीराव पेशवा का कार्यकाल 20 वर्षों का है—संवत् 1777 वि. से संवत् 1797 वि. तक। संवत् 1785 वि. में बाजीराव ने निजा़म का पराभव किया।
संवत् 1786 वि. में बाजीराव ने जैतपुर के युद्ध में महम्मद खान बंगश का पराभव किया।
संवत् 1790 से संवत् 1793 वि. तक बाजीराव ने जंजीरे के सिद्धी पर आक्रमण करके उससे रायगढ़-तले घोसाले आदि स्थान लेकर अपने अधिकार में कर लिये।
संवत् 1794 वि. बाजीराव ने दिल्ली के बादशाह महम्मदशाह की फौज का पराभव किया।
संवत् 1795 वि. में बाजीराव ने भोपाल निजा़म की फौज का पराभव किया। संवत् 1797 वि. में ज्वर के कारण बाजीराव का देहान्त हो गया।
ऐसे पुरुषार्थी बाजीराव पेशवा के प्रति मदन कुँवरि मस्तानी के प्रेम-सम्बन्ध के कारण तत्कालीन संकीर्णताओं से जकड़े समाज के अहंकारी पुरोधाओं ने जो असहिष्णु व्यवहार किया, उसी असहिष्णुता की यह करुण कथा है।
सौन्दर्य-सुरसरिता मदन कुँवरि मस्तानी और पुरुषार्थ-पयोनिधि श्रीमन्त बाजीराव पेशवा की प्रेम-कहानी है यह। हिन्दी में मदन कुँवरि और बाजीराव पेशवा के सम्बन्ध में न के बराबर साहित्य लिखा गया है। मराठी में जिन्होंने भी इस विषय पर लिखा है उन सभी ने मदन कुँवरि मस्तानी को मुसलमान और बाजीराव की रखैल माना है। परन्तु यह सत्य नहीं है। श्री सुधीन्द्र वर्मा ने अपनी पुस्तक (खाँडे की धार) में मदन कुँवरि का परिचय दिया है। ओरछा-नरेश के एक सैनिक हम्मीर सिंह की पुत्री थी मदन कुँवरि। हम्मीर सिंह बुन्देला ठाकुर था। उसने खँगार ठाकुर-कन्या से विवाह कर लिया था। इसी बात पर बुन्देले ठाकुरों ने हम्मीर सिंह को जाति से बहिष्कृत कर दिया था।
ओरछा में बेतवा नदी के तट पर चतुर्भुज-मन्दिर के निकट झोपड़ी में हम्मीर सिंह रहता था। उसकी झोंपड़ी के पास ही एक झोंपड़ी में वृद्ध रहमान रहता था। वह गायक था। वह दरबार में और सभाओं में गाता था। वह अकेला ही था। उसने शादी नहीं की थी। हम्मीर सिंह और रहमान दोनों घनिष्ठ मित्र थे। मदन कुँवरि पाँच वर्ष की थी कि उसकी माता का देहान्त हो गया। मदन कुँवरि मस्त मिजा़ज की लड़की थी। वह चंचल, अल्हड़, परम रूपवती और कोकिलकंठी थी। हम्मीर सिंह को गीत-संगीत सुनने का बड़ा शौक था। दोनों मित्र सन्ध्या समय मिलकर बैठते और संगीत-विभोर होकर समय व्यतीत करते। मदन कुँवरि भी गाने की शौकीन हो गई थी।
क्षत्रिय-कुलावतंस शिवाजी महाराज ने संस्कृत के ग्रन्थों में वर्णित अष्ट प्रधानों की योजना की थी। वे इस प्रकार थे—1.पन्त प्रधान, 2.पन्त अमात्य, 3.पन्त सचिव, 4.मन्त्री,. 5.सेनापति, 6.सुमन्त, 7.न्यायाधीश और 8.पंडित राव। पन्त प्रधान को ही उर्दू में पेशवा कहते हैं। पन्त प्रधान मुख्य प्रधान होते थे तथा छत्रपति की अनुपस्थिति में वे मुख्याधिकारी होते थे। न्यायाधीश और पंडित राव युद्ध निपुण नहीं होते थे—शेष सबको अवसर आने पर लड़ाई के लिए तैयार रहना पड़ता था। संवत् 1746 वि. में छत्रपति शिवाजी के बड़े पुत्र सम्भाजी के वध के बाद औरंगजेब ने सम्भाजी की पत्नी येसूबाई तथा पुत्र शिवा को कैद कर लिया था। औरंगजेब को शिवाजी के नाम से चिढ़ थी। अतः उसने सम्भाजी के पुत्र शिवा का नाम शाहू रख दिया था। बाद में आगे चलकर शिवा को इतिहास में शाहू के नाम से ही जाना गया।
औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसका लड़का मुअज्जम बहादुरशाह नाम धारण कर गद्दी पर बैठा। उसने सम्भाजी की पत्नी को तथा पुत्र शाहू को यह विचार कर कैद से छोड़ दिया कि इससे मराठों में राज्य के लिए संघर्ष होगा। सम्भाजी की मृत्यु के पश्चात् मराठों ने सम्भाजी के छोटे भाई राजाराम को गद्दी पर बैठाया था। संवत् 1757 वि. में राजाराम की मृत्यु हो गई। राजाराम के बाद राज्य का वास्तविक अधिकारी सम्भाजी का लड़का शाहू गद्दी पर बैठना चाहिए था, परंतु वह औरंगजेब की कैद में था। इधर राजाराम की स्त्री ताराबाई अपने दस वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय को गद्दी पर बैठाना चाहती थी। अतः वही हुआ। इधर जब शाहू कैद से मुक्त हुआ तब वह नर्मदा नदी को पार कर दक्षिण में सतारा की ओर चला। तब अनेक मराठा सरदार ताराबाई का पक्ष छोड़कर शाहू के साथ आ गये। शाहू की सब प्रकार से सहायता करके उसको विजय दिलानेवाला व्यक्ति बालाजी विश्वनाथ भट था। शाहू ने बालाजी का कर्तृव्य देखकर उसे संवत् 1770 वि. में पेशवा पद प्रदान किया था। संवत् 1777 वि. में बालाजी की मृत्यु हो गई। तब शाहू ने बालाजी के बड़े लड़के बाजीराव को पेशवा पद दिया। बाजीराव के छोटे भाई का नाम चिमाजी आपा था। बाजीराव पेशवा का कर्तृव्य इतिहास-प्रसिद्ध है। बाजीराव पेशवा का कार्यकाल 20 वर्षों का है—संवत् 1777 वि. से संवत् 1797 वि. तक। संवत् 1785 वि. में बाजीराव ने निजा़म का पराभव किया।
संवत् 1786 वि. में बाजीराव ने जैतपुर के युद्ध में महम्मद खान बंगश का पराभव किया।
संवत् 1790 से संवत् 1793 वि. तक बाजीराव ने जंजीरे के सिद्धी पर आक्रमण करके उससे रायगढ़-तले घोसाले आदि स्थान लेकर अपने अधिकार में कर लिये।
संवत् 1794 वि. बाजीराव ने दिल्ली के बादशाह महम्मदशाह की फौज का पराभव किया।
संवत् 1795 वि. में बाजीराव ने भोपाल निजा़म की फौज का पराभव किया। संवत् 1797 वि. में ज्वर के कारण बाजीराव का देहान्त हो गया।
ऐसे पुरुषार्थी बाजीराव पेशवा के प्रति मदन कुँवरि मस्तानी के प्रेम-सम्बन्ध के कारण तत्कालीन संकीर्णताओं से जकड़े समाज के अहंकारी पुरोधाओं ने जो असहिष्णु व्यवहार किया, उसी असहिष्णुता की यह करुण कथा है।
लेखकीय
‘राऊ’ मेरा नया ऐतिहासिक उपन्यास है। इसको पाठकों के सामने प्रस्तुत करते हुए मैं आनन्दित हो रहा हूँ। ज्येष्ठ बाजीराव पेशवा का सम्पूर्ण जीवन ही रोमहर्षक घटनाओं से परिपूर्ण है। वह मराठी मन को मुग्ध करता है। उनका कर्तृव्य भी निर्विवाद है। विशेष बात यह है कि लगभग पचास हजार वास्तविक पत्रों के माध्यम से वह सुन्दर ढंग से व्यक्त भी हो रहा है। इकतीस वर्ष की अवस्था में, चरम युवावस्था में, इस मनुष्य के जीवन में एक ऐसी स्त्री ने प्रवेश किया जो एक भिन्न वातावरण में पली-बढ़ी थी। मस्तानी असाधारण सौन्दर्य की उत्तराधिकारिणी थी। ऐसी मस्तानी के बाजीराव के जीवन में प्रवेश ने अनेक अकल्पनीय घटनाओं का सूत्रपात कर दिया। हाथ भर का कटिवस्त्र धारण करने वाले कोंकण के भटों के बालबोध कुटुम्ब में बाजीराव का जन्म हुआ और उन्होंने सम्पूर्ण हिन्दुस्तान में अपनी सत्ता की धाक स्थापित कर दी, यह बात ही परम्परागत धारणा को धक्का देनेवाली थी। राजपूत, जाट, बुन्देले, मुसलमान, रोहिले आदि नाना पन्थों के रीति-रिवाजों के लोगों से मराठा राज्य के कर्ता पुरुष के रूप में बाजीराव का सम्बन्ध स्थापित हुआ। बाजीराव की गरुड़-दृष्टि ने नीलाकाश का वेध पहले ही कर लिया था। महत्त्वाकांक्षी जीवन जीने की क्षमता उसमें थी। तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप वह अनिवार्य भी था। परन्तु इस अनिवार्यता को बाजीराव के परिवार के लोग समझ नहीं सके और संघर्ष की आग भड़क उठी। यह वह समय था जब समर्थ पुरुष अंगवस्त्रों की भाँति अनेक स्त्रियाँ रखते थे। और यह कार्य भूषण माना जाता था। परन्तु उस समय में भी बाजीराव ने मस्तानी पर उत्कट प्रेम किया तथा ब्राह्मण और यवन संस्कारों का आदान-प्रदान किया। यह बात वह समाज स्वीकार न कर सका। उस दावानल ने बाजीराव-मस्तानी दोनों को घेर लिया और देखते-ही-देखते उनकी बलि ले ली। इस उपन्यास में यही प्रेम-कथा मैं पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। आशा है, पसन्द आएगी।
इतिहास में मस्तानी का मूल उद्गम अज्ञात है। विद्वानों में मत-वैभिन्य है। उपन्यासकार के रूप में मुझको उससे कोई मतलब नहीं है। फिर भी मैंने अपने ढंग से उसकी खोजबीन की है। उसका उद्गम-स्थान बुन्देलखंड में है, यह मानकर मैंने उसका चरित्र-चित्रण किया है। मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है।
बाजीराव की इस प्रेम-कथा को शिल्पगत सौन्दर्य प्रदान करने के लिए कुछ ऐतिहासिक घटनाओं के विवरण में कुछ अनिवार्य परिवर्तन करने पड़े हैं। परन्तु उससे ज्ञात स्थूल इतिहास में कोई बाधा नहीं आएगी, यह सावधानी रखी गयी है।
इस उपन्यास के लिए सामग्री एकत्र करते समय अनेक जनों की सहायता प्राप्त हुई। श्री य.वि. नामजोशी के कारण ही बाजीराव के निधन-स्थल रावेरखेड़ी का दर्शन करना सम्भव हो सका। मैं उनका और इस कठिन यात्रा में मेरा साथ देनेवाले इतिहास प्रेमी श्री दत्ता परांजपे का आभारी हूँ। श्री बाबा साहब पुरन्दरे के कारण मुझको मस्तानी के कुछ महत्त्वपूर्ण पत्रों का पता चला और श्री ग.ह. खरे के सौजन्य से मैं उन पत्रों पर दृष्टिपात कर सका। इसलिए मैं दोनों का ऋणी हूँ। प्रसिद्ध चित्रकार और इतिहास के गम्भीर अध्येता श्री द.ग. गोडसे ने बड़े अपनत्व से मेरी जो सहायता की है, वह शब्दातीत है। केसरी ग्रन्थशाला और भारत इतिहास संशोधन मंडल का पुस्तकालय—ये अमूल्य खजाने लेखक को लूटने ही पड़ते हैं। मैंने उनको मनमाना लूटा है। उन संस्थाओं का मैं आभारी हूँ। विशेष रूप से ‘केसरी’ के श्री वि.स. वालिंबे के स्नेह को मैं कभी नहीं भूल सकूँगा। इसके अतिरिक्त श्री माधवराव लोकरे व श्री तोरो के सहयोग से मैं धावडशी पहुँच सका, इसलिए मैं दोनों का आभारी हूँ।
तो ऐसे यह ‘बाजीराव’ की कहानी साकार हुई। अब उसको मैं रसिकों के सामने रख रहा हूँ। इस समय मेरी दशा ऐसी हो गई है जैसी प्रियतम को काव्यमय प्रेम-पत्र प्रेषित करनेवाली प्रेयसी की हो जाती है—
इतिहास में मस्तानी का मूल उद्गम अज्ञात है। विद्वानों में मत-वैभिन्य है। उपन्यासकार के रूप में मुझको उससे कोई मतलब नहीं है। फिर भी मैंने अपने ढंग से उसकी खोजबीन की है। उसका उद्गम-स्थान बुन्देलखंड में है, यह मानकर मैंने उसका चरित्र-चित्रण किया है। मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है।
बाजीराव की इस प्रेम-कथा को शिल्पगत सौन्दर्य प्रदान करने के लिए कुछ ऐतिहासिक घटनाओं के विवरण में कुछ अनिवार्य परिवर्तन करने पड़े हैं। परन्तु उससे ज्ञात स्थूल इतिहास में कोई बाधा नहीं आएगी, यह सावधानी रखी गयी है।
इस उपन्यास के लिए सामग्री एकत्र करते समय अनेक जनों की सहायता प्राप्त हुई। श्री य.वि. नामजोशी के कारण ही बाजीराव के निधन-स्थल रावेरखेड़ी का दर्शन करना सम्भव हो सका। मैं उनका और इस कठिन यात्रा में मेरा साथ देनेवाले इतिहास प्रेमी श्री दत्ता परांजपे का आभारी हूँ। श्री बाबा साहब पुरन्दरे के कारण मुझको मस्तानी के कुछ महत्त्वपूर्ण पत्रों का पता चला और श्री ग.ह. खरे के सौजन्य से मैं उन पत्रों पर दृष्टिपात कर सका। इसलिए मैं दोनों का ऋणी हूँ। प्रसिद्ध चित्रकार और इतिहास के गम्भीर अध्येता श्री द.ग. गोडसे ने बड़े अपनत्व से मेरी जो सहायता की है, वह शब्दातीत है। केसरी ग्रन्थशाला और भारत इतिहास संशोधन मंडल का पुस्तकालय—ये अमूल्य खजाने लेखक को लूटने ही पड़ते हैं। मैंने उनको मनमाना लूटा है। उन संस्थाओं का मैं आभारी हूँ। विशेष रूप से ‘केसरी’ के श्री वि.स. वालिंबे के स्नेह को मैं कभी नहीं भूल सकूँगा। इसके अतिरिक्त श्री माधवराव लोकरे व श्री तोरो के सहयोग से मैं धावडशी पहुँच सका, इसलिए मैं दोनों का आभारी हूँ।
तो ऐसे यह ‘बाजीराव’ की कहानी साकार हुई। अब उसको मैं रसिकों के सामने रख रहा हूँ। इस समय मेरी दशा ऐसी हो गई है जैसी प्रियतम को काव्यमय प्रेम-पत्र प्रेषित करनेवाली प्रेयसी की हो जाती है—
खत तो भेजा है पर अब खौफ़ यही है दिल में !
मैंने क्या उसको लिखा और वो क्या समझेगा।।
मैंने क्या उसको लिखा और वो क्या समझेगा।।
ना.सं. इनामदार
एक
शनिवार भवन में लोगों की बहुत भीड़ थी। श्रीमन्त पेशवा ने पुणे में विशाल भवन बनवाया था। आठ दिन तक प्रतिभोज कार्यक्रम होते रहे। छत्रपति शाहू महाराज से लेकर अश्वारोही सैनिकों तक सभी ने सौगातें दीं। लड़ाई में अनेक बार प्रताड़ित शत्रुओं ने भी लिपिक के हाथ उपहार भेजकर मनाने का प्रयत्न किया। निजाम ने अपना खास वकील बड़ी शान के साथ पुणे भेजा था।
स्वयं बाजीराव पेशवा अपने भाई चिमाजी आपा के साथ दाभाडे का सामना करने गुजरात गये हुए थे। वास्तु शान्ति के कार्यक्रम के समय पेशवा पुणे में नहीं थे। उनके पुत्र नाना साहब स्वयं समारोह की देखभाल कर रहे थे।
व्यक्तिगत कार्यकलापों को व्यवस्थित करने में ही नाना और श्रीमन्त पेशवा की माताश्री राधाबाई का सम्पूर्ण समय व्यतीत हो रहा था।
बाजीराव पेशवा की पत्नी श्रीमती काशीबाई समारोह की मुख्य सूत्रधार थीं। जरी-जटित वस्त्र पहनकर तथा हीरे-मोतियों के आभूषण धारण कर जब वे उस हवेली में व्यक्तिगत चौक से आती-जाती थीं तब ऐसा आभास होता था मानो साक्षात् लक्ष्मी ही विचरण कर रही हों ! पच्चीस वर्षीय सुवर्ण कान्तिवाली सुकुमार देहयष्टि की काशीबाई बड़े उत्साह से आने-जानेवाले छोटे-बड़ों की स्त्रियों से पूछताछ कर रही थीं। अपनी मालकिन की चम्पाकली जैसी नासिका पर स्वेद-बिन्दु देखकर पंखे से हवा करनेवाली परिचारिका येसू के होश उड़ रहे थे।
तीसरे पहर गणपति के दर्शन करके काशीबाई जब विश्राम के लिए अपने कक्ष में गयीं तब उन्होंने येसू को सावधान किया, ‘‘अब घड़ी भर किसी को मत आने देना। मैं थोड़ा आराम करना चाहती हूँ।’’
सदैव की भाँति येसू ने ‘‘जी मालकिन !’’ नहीं कहा, इसलिए काशीबाई ने सिर उठाकर अपनी दृष्टि येसू पर स्थिर कर दी। कुछ नाराजी-भरे स्वर में उन्होंने कहा, ‘‘समझ गयी न ?’’
‘‘जी बाई साहब ! परन्तु...,’’ येसू ने हिचकिचाते हुए कहा।
उसी समय काशीबाई ने कुछ तेज आवाज में कहा, ‘‘आज्ञा सुनकर सेवक को तत्काल ‘हाँ’ कहनी चाहिए !’’
‘‘जी हाँ ! बाई साहब !’’
‘‘परन्तु माताजी या चिरंजीव आयें तो उनको मना मत करना !’’ ‘‘जी।...परन्तु आप गुस्सा न हों तो एक बात कहना चाहती हूँ।’’
कुछ न कहकर काशीबाई परिचारिका की ओर केवल देखती रहीं। येसू को इतना ही संकेत पर्याप्त था।
‘‘आज चार दिन हो गये ! सासवड से एक बाई आई हैं। वे कहती हैं, बाई साहब से मिले बिना नहीं जाऊँगी। आज्ञा हो तो वे मिलने आ जाएँगी।’’
‘‘कौन बाई हैं ? उनको व्यक्तिगत प्रबन्धक के पास भेज दो ! या फिर चिरंजीव को सूचना दे दो। वास्तु शान्ति के लिए इतना दान-धर्म हुआ है। और थोड़ा-सा दे देने से कुछ नहीं बिगड़ेगा।’’
‘‘वह बाई कुछ माँगने के लिए शायद नहीं आई हैं।’’
‘‘तो फिर ?’’
‘‘वे स्वयं आपसे मिलना चाहती हैं।’’
‘‘गोपाल भट अत्रे की पत्नी हैं। भानुमती....ऐसा ही कुछ नाम है।’’
‘‘भानुमती ! भानू !’’
मसनद के सहारे आराम से बैठी हुई काशीबाई तत्काल सावधान होकर बैठ गयीं। उनकी कज्जल-श्याम आँखें क्षण-भर खुली-बन्द हुईं। स्मृतियों के पक्षियों ने कहीं पंख फड़फड़ाये।
भानुमती.....? सासवड में जब पेशवाओं के भवन में नववधु के रूप में काशीबाई ने प्रवेश किया था तब उनके साथ खेलने के लिए सासजी ने जिन ब्राह्मण कन्याओं को बुलाया था, उनमें केवल भानु ही ध्यान में रही थी। कारण यह था कि वह सतत लड़ती रहती और लड़ते-लड़ते हँसती रहती। बड़े लोगों की लड़की से हम बात कर रही हैं, यह भूलकर मेरे साथ व्यवहार करनेवाली साँवले रंग की और हृष्ट-पुष्ट शरीरवाली वह भानु अब कैसी दिखती होगी, भगवान जानें !
कितने ही वर्ष बीत गये। बचपन कब चला गया, पता ही नहीं चला। पता चला तो इतना ही कि अब सभी साथ की लड़कियाँ चकित दृष्टि से अपनी ओर देखती हैं। सम्मानपूर्वक दूर-दूर विचरण करती हैं। बाजीराव पेशवा की पत्नी ! पेशवाइन ! अनेक अलंकारों के भार के नीचे वे स्मृतियाँ पूर्ण रूप से दब गयी हैं। देखते-ही-देखते सासवड के उस भवन में पेशवाओं का ऐश्वर्य समाया नहीं। श्रीमन्त पेशवा के घोड़े की टाप जिस प्रदेश में प्रविष्ट हुई उस प्रदेश में मुजरे ही हुए ! जिधर देखो उधर ही यश ! विजय ! उन बाजीराव पेशवा की ये धर्मपत्नी हैं। काशीबाई मन में सुखद अनुभूति लेती हुई बोलीं, ‘‘बाई को अन्दर भेज दें।’’
येसू बाई के साथ अन्दर आयी। काशीबाई ने बाई की ओर देखा और उनको विश्वास नहीं हुआ। भारी साड़ी के छोर को घुटने तक ऊपर उठाकर, कोहनी तक हरी चूड़ियों से भरे हाथ को जल से परिपूर्ण मटके में डालकर उनकी देह पर बिना संकोच के पानी उलीचनेवाली भानु यह नहीं लग रही थी। उसका चेहरा उदास था। देहयष्टि झुकी-झुकी लग रही थी। रस-हीन शुष्क वृक्ष जैसी वह बाई खड़ी थी। उसके नीचे को झुके हुए हाथ, देह पर लपेटी हुई लाल चादर तथा उस आवरण से भी झलकने वाला उसका केशविहीन सिर !
काशीबाई क्षण-भर सिहर उठीं। उनके मुख से एकदम शब्द निकले, ‘‘कौन ? भानू...तू !’’
‘‘हाँ ! मैं वही हूँ।’’
‘‘तुम्हारी यह दशा ! आज तक हमने ऐसा कुछ सुना ही नहीं था।’’
‘‘नहीं सुना, यही अच्छा हुआ। और आज का यह समय ऐसा है कि कुछ भी अभद्र नहीं कहना चाहिए। श्रीमन्त ने पुणे में यह नया भवन बनवाया है। होम हवन, मन्त्रघोष, ब्राह्मण-भोजन इन सब झंझटों में मुझ जैसी की पूछताछ भी नहीं करनी चाहिए !’’
काशीबाई के कान खड़े हो गये। क्षणभर को उनको आभास हुआ, बोलने का ढंग वैसा ही था, उस समय लड़ते-लड़ते हँसती थी, गुदगुदी करती थी, अब हँसते-हँसते लड़ तो नहीं रही ? लाल वस्त्रों में उस साँवले चेहरेवाली भानु की ओर उन्होंने ध्यान से देखा। लाल कपड़े में लपेटी हुई छोटी सन्दूकची-जैसी एक वस्तु को वह बाई अपने झुके हाथ में अच्छी तरह पकड़कर छिपाने का प्रयत्न कर रही थी, ऐसा उनको लगा। वास्तु-शान्ति के इस समारोह में अनेक स्त्रियों ने रिवाज को छोड़कर अपना उपहार स्वयं ही पेशवाइन के हाथों में ही देने का आग्रह किया था, यह बात उनको ज्ञात थी। किसी समय साथ खेलनेवाली यह बाई भी इसी प्रकार—
‘‘परन्तु बाई साहब को पहचानने में कठिनाई नहीं हुई न ?’’ माथे पर आगे आयी हुई साड़ी की पट्टी को उँगलियों से पीछे सरकाती हुई भानू ने पूछा।
‘‘तुम्हारा रूप तो कठिनाई पैदा करनेवाला ही दिखाई दे रहा है ! परन्तु तुम्हारी आवाज नहीं बदली। वह ज्यों-की-त्यों आज भी है।’’
‘‘ज्यों-की-त्यों...? क्या मतलब ?’’
‘‘जब हम छोटी थीं तब सासवड के भवन में तुम हमारे साथ खेलती थीं। उस समय जैसी आवाज थी वेसी ही।’’
‘‘उस समय के खेल की, लड़ने-झगड़ने की बाई साहब को याद है तो !’’
काशीबाई के चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी। वे बोलीं, ‘‘बचपन की यादें क्या कोई कभी भूलता है ? और तुम इस तरह खड़ी कितनी देर रहोगी ? बैठो न ! बैठो ! संकोच मत करो !’’
गलीचे से दूर धरती पर आँचल सँवारकर बैठ गयी।
‘‘पिछले चार दिनों से बाई साहब से मिलने का प्रयत्न कर रही थी। परन्तु इस भीड़ में मुझ जैसी विधवा की आवाज कौन सुनता ! फिर मैंने धरना ही दे दिया। तब यह मिलने का अवसर आया।’’
‘‘सच कह रही हो ?’’ काशीबाई ने आश्चर्य से आँखें विस्फारित कर कहा, ‘‘हमको व्यक्तिगत रूप से यह कहना पड़ेगा।’’
‘‘उसकी इतनी आवश्यकता नहीं है। मैं एक राँड़ औरत हूँ। मैं मिली क्या और न मिली तो क्या, उसका महत्त्व ही क्या है। सासवड के छोटे भवन से पेशवे इस बड़ी हवेली में रहने आये हैं। ये बड़े चौक, ये सजे हुए कक्ष, हाथी और घोड़ों की चारों ओर घुड़सालें, नौकर-चाकरों की दौड़धूप यह सब मैंने रोज देखा है। पेशवाओं के वैभव में वृद्धि हुई है। आनन्द की बात है परन्तु मेरा....हमारा....’’सहसा बाई का गला भर आया। उन्होंने आँचल आँखों से लगाया।
काशीबाई को यह कोई विशेष बात नहीं लगी। व्यक्तिगत व्यवहार में ऐसे प्रसंग रोज ही आते थे। दीन-दुःखी और अभावग्रस्तों को वे मुक्त हस्त सहायता देती थीं। उनके सुपुत्र नाना साहब माताश्री की आज्ञा का सिर झुकाकर पालन करते थे। इसलिए उन्होंने कहा, ‘‘बाई ! दैव ही जब मारे तब प्रार्थना किससे की जाय ? यह मर्त्यलोक है। सबकुछ मनुष्य के हाथ में कहाँ होता है ! मैं व्यक्तिगत रूप से कार्यालय को कहे देती हूँ कि....’’
‘‘बाई साहब ! मैं कुछ माँगने नहीं आयी हूँ।’’ आँखें पोंछकर काशीबाई की ओर एकटक देखती हुई बोली, ‘‘बल्कि मैं तो अपना दुःख अलग रखकर श्रीमन्त पेशवा की हवेली वास्तु-शान्ति में अपना कुछ योगदान करने की इच्छा से यह छोटा-सा उपहार लेकर आयी हूँ।’’
लाल कपड़े में लपेटी हुई वह छोटी-सी सन्दूकची बाई ने काशीबाई के सामने गलीचे पर रख दी।
रिवाज के अनुसार भेंट वस्तु को स्पर्श करने के लिए काशीबाई का दायाँ हाथ सहज ही आगे बढ़ा।
‘‘ठहरिए बाई साहब !’’ सामने बैठी हुई बाई सहसा ऊँची आवाज में कहने लगी, ‘‘पहले मैं यह बताती हूँ कि इस पेटिका में क्या है ? उसके बाद आप भेंट स्वीकार करें !’’
‘‘कुछ भी क्यों न हो। बड़े स्नेह और आदर से तुम जो कुछ भी हमको दे रहे हो, वह हमको अच्छा लगेगा ही। फिर उसका पहले वर्णन किसलिए ?’’
काशीबाई के मुख पर पुनः मुस्कराहट आ गयी।
‘‘इतना बड़ा समारोह हुआ। गंगा-जमुना का पवित्र जल सारे भवन पर छिड़का गया होगा !’’ वह बाई पेटिका की ओर एकटक देखती हुई कहती जा रही थी, ‘‘सात समुद्रों का जल इन कुंडों में भर गया होगा। हाथी, ऊँट, घोड़े—इनके नीचे की मिट्टी भवन के आँगन में फैलाई गयी होगी। वास्तु तत्त्व के साथ सुवर्ण, मोती और रत्न गाड़े गये होंगे। ऐसे इस समारोह में मेरे इस उपहार की पहले पूछताछ करके उसको बाद में ही स्वीकार करें !’’
‘‘आप जो चाहती हैं, वही होगा। श्रीमन्त पेशवा की हवेली की वास्तु शान्ति के लिए आप क्या उपहार लायी हैं, यह हमें बताइए !’’
‘‘यह उपहार है अस्थियाँ ! मेरे पतिदेव की अस्थियाँ।’’
‘‘अस्थियाँ ! उपहार के रूप में। तुम पागल तो नहीं हो गई हो ?’’
‘‘बस यही कमी है। पेशवे यदि इसी तरह व्यवहार करते रहे तो कुछ दिनों में ही पागल होने का अवसर आ जाएगा।’’
‘‘बाई ! आप परिहास तो नहीं कर रही हैं ?’’
‘‘दैव मेरा ही उपहास कर रहा है। बचपन में मैं जिसके साथ खेलती थी, रूठती थी, लड़ती भी थी; उसी सहेली के पति ने....’’
‘‘शिष्टाचार छूट रहा है बाई !’’ काशीबाई का स्वर सहसा कठोर हो उठा, ‘‘इस भवन के स्वामी को और इस मंगलसूत्र के स्वामी को श्रीमन्त पेशवा कहते हैं। शिष्ट भाषा में बातें करोगी तो सबकुछ सुना जाएगा। अन्यथा विदा लो। हम आगे कुछ नहीं सुनना चाहतीं।’’
कुछ क्षणों तक दोनों ने एक-दूसरे को एकटक देखा। फिर सिर झुकाकर भानुमती बाई ने धीरे से कहा, ‘‘मुझसे गलती हो गयी। तो फिर अब तो मेरा उपहार स्वीकार करेंगी न ?’’
‘‘अभी तुमने श्रीमन्त पेशवा का उल्लेख किया था। उन्होंने तुम पर कौन-सा अन्याय किया है ? क्या उपहास किया है ? और पतिदेव की अस्थियाँ तुम उपहार के रूप में लायी हो। ऐसा आज तक संसार में किसी ने किया है क्या ?’’
‘‘मैं एक ब्राह्मण की पत्नी हूँ। न अधिकार है, न सत्ता है। मेरी कौन सुनेगा ?’’
‘‘हम सुन रही हैं ! कहिए !’’
‘‘श्रीमन्त पेशवा ने मेरे पति को मारा है। अब करेंगी विश्वास ?’’
‘‘परन्तु यह बात हमको आज तक ज्ञात कैसे नहीं हुई ? अत्रे क्या हमारे लिए पराये थे ? जैसे पुरन्दरे वैसे अत्रे। अत्रे जी से शत्रुता करने की बात हमने तो सुनी नहीं।’’
‘‘मनुष्य को मारने के लिए उससे शत्रुता करना आवश्यक नहीं होता है !’’
‘‘समझ में आये ऐसी भाषा में कहो।’’
‘‘सासवड की जागीर का हम अत्रे पीढ़ी-दर-पीढ़ी उपभोग कर रहे थे। पेशवा जी ने पुरन्दरों का पक्ष लिया। हमारी जागीर के झगड़े में पक्षपात करके पेशवे जी ने हमारे पुरन्दरे के पक्ष में निर्णय दिया। पुरन्दरे जागीरदार बन गये। अत्रे झूठे सिद्ध हुए। हमारी जागीर छीन ली गयी। हमको बेसहारा कर दिया।
‘‘ये राजनीति की बातें कार्यालयों में होती हैं, यहाँ नहीं। हमारी इसमें कोई रुचि नहीं है।’’
‘‘परन्तु इसी ने मेरा संसार नष्ट कर दिया। पेशवाओं के उस निर्णय पत्र को कपाल पर बाँधकर मेरे पतिदेव ने पुरन्दरे के द्वार पर अपनी जीभ काटकर प्राण दे दिये। एक क्षण में मेरे हाथों में कोहनी तक पहनी हुई चूड़ियाँ टूट गयीं। विशाल भवन में मालकिन के रूप में विचरण करनेवाली मैं मुट्ठीभर अन्न तो तरसने लगी और घर के एक कोने में चमगादड़ की भाँति मुँह छिपाकर बैठ गयी। यह सब श्रीमन्त पेशवा ने किया। उनकी हवेली खड़ी हो गयी। मेरी छोटी-सी छाया नष्ट हो गयी। मेरी तो यह दशा हो गयी। अब बाई साहब मेरे पतिदेव की इन अस्थियों को रख लें। श्रीमन्त पेशवा का डंका त्रिभुवन में बज रहा है। संसार पेशवाओं के इस न्याय को भी देखे। मेरे जीवन को वीरान कर दिया। मुझ अभागिन विधवा का यह शाप कभी व्यर्थ नहीं जाएगा। बाई साहब, चलती हूँ मैं।’’
और पीछे मुड़कर भी न देखती हुई भानुमती झटपट चलती हुई कक्ष से बाहर निकल गयी।
गलीचे पर लाल कपड़े में लिपटी वह पेटिका वैसी ही रखी थी।
कपोल पर हथेली रखकर काशीबाई बहुत देर तक उस पेटिका की ओर देखती रहीं। कक्ष में धीरे-धीरे अन्धकार घिरने लगा।
सेवकों ने दीपक लाकर रख दिये। तब एक लम्बी साँस छोड़कर काशीबाई ने पहरेदार से कहा, ‘‘इसको उठाकर ले जाओ ! और चिरंजीव से कहना कि सांयकालीन सन्ध्या हो गयी हो तो हमने बुलाया है।’’
स्वयं बाजीराव पेशवा अपने भाई चिमाजी आपा के साथ दाभाडे का सामना करने गुजरात गये हुए थे। वास्तु शान्ति के कार्यक्रम के समय पेशवा पुणे में नहीं थे। उनके पुत्र नाना साहब स्वयं समारोह की देखभाल कर रहे थे।
व्यक्तिगत कार्यकलापों को व्यवस्थित करने में ही नाना और श्रीमन्त पेशवा की माताश्री राधाबाई का सम्पूर्ण समय व्यतीत हो रहा था।
बाजीराव पेशवा की पत्नी श्रीमती काशीबाई समारोह की मुख्य सूत्रधार थीं। जरी-जटित वस्त्र पहनकर तथा हीरे-मोतियों के आभूषण धारण कर जब वे उस हवेली में व्यक्तिगत चौक से आती-जाती थीं तब ऐसा आभास होता था मानो साक्षात् लक्ष्मी ही विचरण कर रही हों ! पच्चीस वर्षीय सुवर्ण कान्तिवाली सुकुमार देहयष्टि की काशीबाई बड़े उत्साह से आने-जानेवाले छोटे-बड़ों की स्त्रियों से पूछताछ कर रही थीं। अपनी मालकिन की चम्पाकली जैसी नासिका पर स्वेद-बिन्दु देखकर पंखे से हवा करनेवाली परिचारिका येसू के होश उड़ रहे थे।
तीसरे पहर गणपति के दर्शन करके काशीबाई जब विश्राम के लिए अपने कक्ष में गयीं तब उन्होंने येसू को सावधान किया, ‘‘अब घड़ी भर किसी को मत आने देना। मैं थोड़ा आराम करना चाहती हूँ।’’
सदैव की भाँति येसू ने ‘‘जी मालकिन !’’ नहीं कहा, इसलिए काशीबाई ने सिर उठाकर अपनी दृष्टि येसू पर स्थिर कर दी। कुछ नाराजी-भरे स्वर में उन्होंने कहा, ‘‘समझ गयी न ?’’
‘‘जी बाई साहब ! परन्तु...,’’ येसू ने हिचकिचाते हुए कहा।
उसी समय काशीबाई ने कुछ तेज आवाज में कहा, ‘‘आज्ञा सुनकर सेवक को तत्काल ‘हाँ’ कहनी चाहिए !’’
‘‘जी हाँ ! बाई साहब !’’
‘‘परन्तु माताजी या चिरंजीव आयें तो उनको मना मत करना !’’ ‘‘जी।...परन्तु आप गुस्सा न हों तो एक बात कहना चाहती हूँ।’’
कुछ न कहकर काशीबाई परिचारिका की ओर केवल देखती रहीं। येसू को इतना ही संकेत पर्याप्त था।
‘‘आज चार दिन हो गये ! सासवड से एक बाई आई हैं। वे कहती हैं, बाई साहब से मिले बिना नहीं जाऊँगी। आज्ञा हो तो वे मिलने आ जाएँगी।’’
‘‘कौन बाई हैं ? उनको व्यक्तिगत प्रबन्धक के पास भेज दो ! या फिर चिरंजीव को सूचना दे दो। वास्तु शान्ति के लिए इतना दान-धर्म हुआ है। और थोड़ा-सा दे देने से कुछ नहीं बिगड़ेगा।’’
‘‘वह बाई कुछ माँगने के लिए शायद नहीं आई हैं।’’
‘‘तो फिर ?’’
‘‘वे स्वयं आपसे मिलना चाहती हैं।’’
‘‘गोपाल भट अत्रे की पत्नी हैं। भानुमती....ऐसा ही कुछ नाम है।’’
‘‘भानुमती ! भानू !’’
मसनद के सहारे आराम से बैठी हुई काशीबाई तत्काल सावधान होकर बैठ गयीं। उनकी कज्जल-श्याम आँखें क्षण-भर खुली-बन्द हुईं। स्मृतियों के पक्षियों ने कहीं पंख फड़फड़ाये।
भानुमती.....? सासवड में जब पेशवाओं के भवन में नववधु के रूप में काशीबाई ने प्रवेश किया था तब उनके साथ खेलने के लिए सासजी ने जिन ब्राह्मण कन्याओं को बुलाया था, उनमें केवल भानु ही ध्यान में रही थी। कारण यह था कि वह सतत लड़ती रहती और लड़ते-लड़ते हँसती रहती। बड़े लोगों की लड़की से हम बात कर रही हैं, यह भूलकर मेरे साथ व्यवहार करनेवाली साँवले रंग की और हृष्ट-पुष्ट शरीरवाली वह भानु अब कैसी दिखती होगी, भगवान जानें !
कितने ही वर्ष बीत गये। बचपन कब चला गया, पता ही नहीं चला। पता चला तो इतना ही कि अब सभी साथ की लड़कियाँ चकित दृष्टि से अपनी ओर देखती हैं। सम्मानपूर्वक दूर-दूर विचरण करती हैं। बाजीराव पेशवा की पत्नी ! पेशवाइन ! अनेक अलंकारों के भार के नीचे वे स्मृतियाँ पूर्ण रूप से दब गयी हैं। देखते-ही-देखते सासवड के उस भवन में पेशवाओं का ऐश्वर्य समाया नहीं। श्रीमन्त पेशवा के घोड़े की टाप जिस प्रदेश में प्रविष्ट हुई उस प्रदेश में मुजरे ही हुए ! जिधर देखो उधर ही यश ! विजय ! उन बाजीराव पेशवा की ये धर्मपत्नी हैं। काशीबाई मन में सुखद अनुभूति लेती हुई बोलीं, ‘‘बाई को अन्दर भेज दें।’’
येसू बाई के साथ अन्दर आयी। काशीबाई ने बाई की ओर देखा और उनको विश्वास नहीं हुआ। भारी साड़ी के छोर को घुटने तक ऊपर उठाकर, कोहनी तक हरी चूड़ियों से भरे हाथ को जल से परिपूर्ण मटके में डालकर उनकी देह पर बिना संकोच के पानी उलीचनेवाली भानु यह नहीं लग रही थी। उसका चेहरा उदास था। देहयष्टि झुकी-झुकी लग रही थी। रस-हीन शुष्क वृक्ष जैसी वह बाई खड़ी थी। उसके नीचे को झुके हुए हाथ, देह पर लपेटी हुई लाल चादर तथा उस आवरण से भी झलकने वाला उसका केशविहीन सिर !
काशीबाई क्षण-भर सिहर उठीं। उनके मुख से एकदम शब्द निकले, ‘‘कौन ? भानू...तू !’’
‘‘हाँ ! मैं वही हूँ।’’
‘‘तुम्हारी यह दशा ! आज तक हमने ऐसा कुछ सुना ही नहीं था।’’
‘‘नहीं सुना, यही अच्छा हुआ। और आज का यह समय ऐसा है कि कुछ भी अभद्र नहीं कहना चाहिए। श्रीमन्त ने पुणे में यह नया भवन बनवाया है। होम हवन, मन्त्रघोष, ब्राह्मण-भोजन इन सब झंझटों में मुझ जैसी की पूछताछ भी नहीं करनी चाहिए !’’
काशीबाई के कान खड़े हो गये। क्षणभर को उनको आभास हुआ, बोलने का ढंग वैसा ही था, उस समय लड़ते-लड़ते हँसती थी, गुदगुदी करती थी, अब हँसते-हँसते लड़ तो नहीं रही ? लाल वस्त्रों में उस साँवले चेहरेवाली भानु की ओर उन्होंने ध्यान से देखा। लाल कपड़े में लपेटी हुई छोटी सन्दूकची-जैसी एक वस्तु को वह बाई अपने झुके हाथ में अच्छी तरह पकड़कर छिपाने का प्रयत्न कर रही थी, ऐसा उनको लगा। वास्तु-शान्ति के इस समारोह में अनेक स्त्रियों ने रिवाज को छोड़कर अपना उपहार स्वयं ही पेशवाइन के हाथों में ही देने का आग्रह किया था, यह बात उनको ज्ञात थी। किसी समय साथ खेलनेवाली यह बाई भी इसी प्रकार—
‘‘परन्तु बाई साहब को पहचानने में कठिनाई नहीं हुई न ?’’ माथे पर आगे आयी हुई साड़ी की पट्टी को उँगलियों से पीछे सरकाती हुई भानू ने पूछा।
‘‘तुम्हारा रूप तो कठिनाई पैदा करनेवाला ही दिखाई दे रहा है ! परन्तु तुम्हारी आवाज नहीं बदली। वह ज्यों-की-त्यों आज भी है।’’
‘‘ज्यों-की-त्यों...? क्या मतलब ?’’
‘‘जब हम छोटी थीं तब सासवड के भवन में तुम हमारे साथ खेलती थीं। उस समय जैसी आवाज थी वेसी ही।’’
‘‘उस समय के खेल की, लड़ने-झगड़ने की बाई साहब को याद है तो !’’
काशीबाई के चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी। वे बोलीं, ‘‘बचपन की यादें क्या कोई कभी भूलता है ? और तुम इस तरह खड़ी कितनी देर रहोगी ? बैठो न ! बैठो ! संकोच मत करो !’’
गलीचे से दूर धरती पर आँचल सँवारकर बैठ गयी।
‘‘पिछले चार दिनों से बाई साहब से मिलने का प्रयत्न कर रही थी। परन्तु इस भीड़ में मुझ जैसी विधवा की आवाज कौन सुनता ! फिर मैंने धरना ही दे दिया। तब यह मिलने का अवसर आया।’’
‘‘सच कह रही हो ?’’ काशीबाई ने आश्चर्य से आँखें विस्फारित कर कहा, ‘‘हमको व्यक्तिगत रूप से यह कहना पड़ेगा।’’
‘‘उसकी इतनी आवश्यकता नहीं है। मैं एक राँड़ औरत हूँ। मैं मिली क्या और न मिली तो क्या, उसका महत्त्व ही क्या है। सासवड के छोटे भवन से पेशवे इस बड़ी हवेली में रहने आये हैं। ये बड़े चौक, ये सजे हुए कक्ष, हाथी और घोड़ों की चारों ओर घुड़सालें, नौकर-चाकरों की दौड़धूप यह सब मैंने रोज देखा है। पेशवाओं के वैभव में वृद्धि हुई है। आनन्द की बात है परन्तु मेरा....हमारा....’’सहसा बाई का गला भर आया। उन्होंने आँचल आँखों से लगाया।
काशीबाई को यह कोई विशेष बात नहीं लगी। व्यक्तिगत व्यवहार में ऐसे प्रसंग रोज ही आते थे। दीन-दुःखी और अभावग्रस्तों को वे मुक्त हस्त सहायता देती थीं। उनके सुपुत्र नाना साहब माताश्री की आज्ञा का सिर झुकाकर पालन करते थे। इसलिए उन्होंने कहा, ‘‘बाई ! दैव ही जब मारे तब प्रार्थना किससे की जाय ? यह मर्त्यलोक है। सबकुछ मनुष्य के हाथ में कहाँ होता है ! मैं व्यक्तिगत रूप से कार्यालय को कहे देती हूँ कि....’’
‘‘बाई साहब ! मैं कुछ माँगने नहीं आयी हूँ।’’ आँखें पोंछकर काशीबाई की ओर एकटक देखती हुई बोली, ‘‘बल्कि मैं तो अपना दुःख अलग रखकर श्रीमन्त पेशवा की हवेली वास्तु-शान्ति में अपना कुछ योगदान करने की इच्छा से यह छोटा-सा उपहार लेकर आयी हूँ।’’
लाल कपड़े में लपेटी हुई वह छोटी-सी सन्दूकची बाई ने काशीबाई के सामने गलीचे पर रख दी।
रिवाज के अनुसार भेंट वस्तु को स्पर्श करने के लिए काशीबाई का दायाँ हाथ सहज ही आगे बढ़ा।
‘‘ठहरिए बाई साहब !’’ सामने बैठी हुई बाई सहसा ऊँची आवाज में कहने लगी, ‘‘पहले मैं यह बताती हूँ कि इस पेटिका में क्या है ? उसके बाद आप भेंट स्वीकार करें !’’
‘‘कुछ भी क्यों न हो। बड़े स्नेह और आदर से तुम जो कुछ भी हमको दे रहे हो, वह हमको अच्छा लगेगा ही। फिर उसका पहले वर्णन किसलिए ?’’
काशीबाई के मुख पर पुनः मुस्कराहट आ गयी।
‘‘इतना बड़ा समारोह हुआ। गंगा-जमुना का पवित्र जल सारे भवन पर छिड़का गया होगा !’’ वह बाई पेटिका की ओर एकटक देखती हुई कहती जा रही थी, ‘‘सात समुद्रों का जल इन कुंडों में भर गया होगा। हाथी, ऊँट, घोड़े—इनके नीचे की मिट्टी भवन के आँगन में फैलाई गयी होगी। वास्तु तत्त्व के साथ सुवर्ण, मोती और रत्न गाड़े गये होंगे। ऐसे इस समारोह में मेरे इस उपहार की पहले पूछताछ करके उसको बाद में ही स्वीकार करें !’’
‘‘आप जो चाहती हैं, वही होगा। श्रीमन्त पेशवा की हवेली की वास्तु शान्ति के लिए आप क्या उपहार लायी हैं, यह हमें बताइए !’’
‘‘यह उपहार है अस्थियाँ ! मेरे पतिदेव की अस्थियाँ।’’
‘‘अस्थियाँ ! उपहार के रूप में। तुम पागल तो नहीं हो गई हो ?’’
‘‘बस यही कमी है। पेशवे यदि इसी तरह व्यवहार करते रहे तो कुछ दिनों में ही पागल होने का अवसर आ जाएगा।’’
‘‘बाई ! आप परिहास तो नहीं कर रही हैं ?’’
‘‘दैव मेरा ही उपहास कर रहा है। बचपन में मैं जिसके साथ खेलती थी, रूठती थी, लड़ती भी थी; उसी सहेली के पति ने....’’
‘‘शिष्टाचार छूट रहा है बाई !’’ काशीबाई का स्वर सहसा कठोर हो उठा, ‘‘इस भवन के स्वामी को और इस मंगलसूत्र के स्वामी को श्रीमन्त पेशवा कहते हैं। शिष्ट भाषा में बातें करोगी तो सबकुछ सुना जाएगा। अन्यथा विदा लो। हम आगे कुछ नहीं सुनना चाहतीं।’’
कुछ क्षणों तक दोनों ने एक-दूसरे को एकटक देखा। फिर सिर झुकाकर भानुमती बाई ने धीरे से कहा, ‘‘मुझसे गलती हो गयी। तो फिर अब तो मेरा उपहार स्वीकार करेंगी न ?’’
‘‘अभी तुमने श्रीमन्त पेशवा का उल्लेख किया था। उन्होंने तुम पर कौन-सा अन्याय किया है ? क्या उपहास किया है ? और पतिदेव की अस्थियाँ तुम उपहार के रूप में लायी हो। ऐसा आज तक संसार में किसी ने किया है क्या ?’’
‘‘मैं एक ब्राह्मण की पत्नी हूँ। न अधिकार है, न सत्ता है। मेरी कौन सुनेगा ?’’
‘‘हम सुन रही हैं ! कहिए !’’
‘‘श्रीमन्त पेशवा ने मेरे पति को मारा है। अब करेंगी विश्वास ?’’
‘‘परन्तु यह बात हमको आज तक ज्ञात कैसे नहीं हुई ? अत्रे क्या हमारे लिए पराये थे ? जैसे पुरन्दरे वैसे अत्रे। अत्रे जी से शत्रुता करने की बात हमने तो सुनी नहीं।’’
‘‘मनुष्य को मारने के लिए उससे शत्रुता करना आवश्यक नहीं होता है !’’
‘‘समझ में आये ऐसी भाषा में कहो।’’
‘‘सासवड की जागीर का हम अत्रे पीढ़ी-दर-पीढ़ी उपभोग कर रहे थे। पेशवा जी ने पुरन्दरों का पक्ष लिया। हमारी जागीर के झगड़े में पक्षपात करके पेशवे जी ने हमारे पुरन्दरे के पक्ष में निर्णय दिया। पुरन्दरे जागीरदार बन गये। अत्रे झूठे सिद्ध हुए। हमारी जागीर छीन ली गयी। हमको बेसहारा कर दिया।
‘‘ये राजनीति की बातें कार्यालयों में होती हैं, यहाँ नहीं। हमारी इसमें कोई रुचि नहीं है।’’
‘‘परन्तु इसी ने मेरा संसार नष्ट कर दिया। पेशवाओं के उस निर्णय पत्र को कपाल पर बाँधकर मेरे पतिदेव ने पुरन्दरे के द्वार पर अपनी जीभ काटकर प्राण दे दिये। एक क्षण में मेरे हाथों में कोहनी तक पहनी हुई चूड़ियाँ टूट गयीं। विशाल भवन में मालकिन के रूप में विचरण करनेवाली मैं मुट्ठीभर अन्न तो तरसने लगी और घर के एक कोने में चमगादड़ की भाँति मुँह छिपाकर बैठ गयी। यह सब श्रीमन्त पेशवा ने किया। उनकी हवेली खड़ी हो गयी। मेरी छोटी-सी छाया नष्ट हो गयी। मेरी तो यह दशा हो गयी। अब बाई साहब मेरे पतिदेव की इन अस्थियों को रख लें। श्रीमन्त पेशवा का डंका त्रिभुवन में बज रहा है। संसार पेशवाओं के इस न्याय को भी देखे। मेरे जीवन को वीरान कर दिया। मुझ अभागिन विधवा का यह शाप कभी व्यर्थ नहीं जाएगा। बाई साहब, चलती हूँ मैं।’’
और पीछे मुड़कर भी न देखती हुई भानुमती झटपट चलती हुई कक्ष से बाहर निकल गयी।
गलीचे पर लाल कपड़े में लिपटी वह पेटिका वैसी ही रखी थी।
कपोल पर हथेली रखकर काशीबाई बहुत देर तक उस पेटिका की ओर देखती रहीं। कक्ष में धीरे-धीरे अन्धकार घिरने लगा।
सेवकों ने दीपक लाकर रख दिये। तब एक लम्बी साँस छोड़कर काशीबाई ने पहरेदार से कहा, ‘‘इसको उठाकर ले जाओ ! और चिरंजीव से कहना कि सांयकालीन सन्ध्या हो गयी हो तो हमने बुलाया है।’’
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